चोल प्राचीन भारत का एक ऐसा राज्य वंश था जो दक्षिण भारत में और आस पास के अन्य दक्षिण में तमिल चोल
९वी शताब्दी १३वी शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया |
भारतीय राजवंशो ,विशेषता चोलो के प्रशासन की मुख्य विशेषता है स्थानीय तत्वों पर प्रशासन में बल देना | नगर एवं ग्राम प्रशासन जवाबदेही राज्य अपने ऊपर प्रत्यक्ष रूप से नही लेता था ,बल्कि स्थानीय स्वायत संस्थान को ही इसकी जिमेवारी सौंप देता था ,चोलो ने ग्राम प्रशासन के हित्त है उसका आरंभ ८ -९ वी शताब्दी में ही पांड्यों और पळवो के अधीन देखा जा सकता है | चोलो ने उस परम्परा का विकास किया चोलो के अधीन स्थानीय प्रशासन में ग्राम सभाओं तथा सामाजिक आर्थिक ,धार्मिक स्वरुप के समूहों में स्थानीय प्रशासन से सम्बन्ध था |
समूह -समूहों का गठन उद्देश्य विशेष की पूर्ति के लिए किया जाता था ,आर्थिक कार्यो सम्बन्ध समूहों में मणिग्रामम का उल्लेख चोल अभिलेखों में मिलता है | कुछ समूहों का धार्मिक प्रबंध देखना था | प्रत्येक ग्राम और नगर को विभिन्न गलियों में विभक्त कर उनकी व्यवस्था के लिए विभिन्न समूहों का गठन किया जाता था |
जैसे - बढ़ई ,सुनार ,धोबी ,इत्यादि | सामाजिक और आर्थिक जीवन में इन समूहों की विशिष्ट भूमिका थी | सभी समूहों में आपसी सम्बन्ध रहता था |
ग्रामसभाएं - चोलो की ग्राम सभाये पर बहुत ध्यान दिया जाता था ,चोलो की दो प्रकार के ग्राम सभाऐ की उल्लेख मिलता है उर और सभा |
उर - उर सभा में चोलो ने अपना गठन के संबंध में विशेष और स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है | ऐसा परतीत होता है की गाँव में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति पुरुष उर का सदस्य होता था |
वे सभी उर के कार्यवाहियों में भाग लेते थे,उर के कार्यो का समुचित ढंग से संपादन करने के लिए एक कार्यकारिणी परिषद् का गठन होता था | इनके गठन की प्रक्रिया और इसके सदस्यों की निश्चित संख्या स्पष्ट नहीं है |
सभा का गठन - उर की अपेक्षा सभा नामक संस्था अधिक संगठित प्रतीत होती है कुछ सभाओं में कार्यकारिणी परिषद का उल्लेख मिलता है,परन्तु अधिकांश सभाए वरियार और इसके सदस्य वारियर द्वारा संचालित होती थी |
सभा इन समितियों का गठन विशिष्ट कार्यों की पूर्ति हेतु विभिन्न सभाओं के वरियार ,उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया ,वरियारो की संख्या एक दूसरे से भिन्न होती थी, उनमे एकरूपता नहीं थी | मंदिर को दिये गए देवदान भूमि की देखभाल करने हेतु |
सदस्यों के निर्वाचल के लिए लाटरी व्यवस्था का पालन किया जाता था सिर्फ वैसे व्यक्ति का निर्वाचन का मनोनीत हो यह व्यवस्था सफल नहीं सक्रीय | अतः दो वर्षो बाद समिति में निर्वाचित होने वाले सदस्यों की परिक्रिया में परिवर्तन अथवा सुधार लाने का प्रयास किया गया |
नयी व्यवस्था के अनुसार समिति में सिर्फ कुटुम्बस के सदस्यों को ही स्थान दिया गया, सेरी के प्रतिनिधि को कोई स्थान नहीं मिला |
कुटुंब द्वारा अपने प्रतिनिधि के मनोनन की राज्यकर्मी को उपस्थित में किया गया | कुछ वर्षो पश्चात सभा ने गावँ के सभी लोगो के लिए सोने का मूल्य तय करने के लिए समिति नियुक्त की |
नगरम तथा नाडू - उरऔर सभा जहाँ ग्राम व्यवस्था से सम्बन्ध स्थानीय प्रशासनिक इकाइयां थी ,वही चोल अभिलेखों में नागरम तथा नाडु का भी उल्लेख मिलता है | नागरम मूलतः व्यापारियों की सभा थी | महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्रो में नागरम का गठन स्थानीय सभा के रूप में होता था नाडु एक प्रशासनिक इकाई थी जो मुख्यातः भू -राजस्व व्यवस्था से सम्बद्ध थी | इसमें क्षेत्र विशेष के सभी ग्रामो एवं नगरों की सभाओं के प्रतिनिधियों को स्थान दिया गया था | नागरम और नाडू के गठन के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध नहीं है | कुछ इतिहास कार का ये मानना है की इनका स्वरुप पौर -जनपद के समान था | नाडू धार्मिक अनुदान भी देती थी तथा अनुदान में मिली भूमि की व्यवस्था भी देखती थी |
विवादास्पद अथवा सामान्य मामलो में भी मतदान की व्यवस्था नहीं थी | कभी -कभी सभा में गतिरोध उत्पन्न करने की चेष्टा को रोकने के लिए नियम भी बनाये जाते थे | चोलो के अधीन विभिन्न समूह ,उर ,सभा ,नागरम ,नाडू स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे | इन संस्थाओं के माध्यम से क्षेत्र विशेष के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिरुचि एवं योग्यता के अनुसार स्थानीय प्रशासन में सहभागी होने का अवसर प्राप्त होता था |
चोल स्थानीय प्रशासन की सबसे प्रमुख पर्याप्त प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करना | इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है की ग्राम सभा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर लगाने तथा कर से मुक्ति देने का अधिकार भी रखती थी | इस प्रकार के साक्ष्य अनेक अभिलेखों से मिलते है | एक अभिलेख के अनुसार चोल राजा राजकेशरी के द्वितीय राजवंश में नलुर की ग्रामसभा ने स्थानीय दुकानों से प्राप्त होने वाली आय को ,कर्ज के सूद के बदले में ,स्थानीय मंदिर को स्थायी कर पर देने की व्यवस्था की |
इसी प्रकार कुमार -मंतड्पुरम के नागरतार ने स्थानीय आमदनी से प्राप्त होने वाली वार्षिक राशि को एक जैन धर्म स्थल की देखरेख के लिए देने का निश्चय किया |
प्राचीन भारत का एक राज्य वंश चोल वंश
९वी शताब्दी १३वी शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया |
भारतीय राजवंशो ,विशेषता चोलो के प्रशासन की मुख्य विशेषता है स्थानीय तत्वों पर प्रशासन में बल देना | नगर एवं ग्राम प्रशासन जवाबदेही राज्य अपने ऊपर प्रत्यक्ष रूप से नही लेता था ,बल्कि स्थानीय स्वायत संस्थान को ही इसकी जिमेवारी सौंप देता था ,चोलो ने ग्राम प्रशासन के हित्त है उसका आरंभ ८ -९ वी शताब्दी में ही पांड्यों और पळवो के अधीन देखा जा सकता है | चोलो ने उस परम्परा का विकास किया चोलो के अधीन स्थानीय प्रशासन में ग्राम सभाओं तथा सामाजिक आर्थिक ,धार्मिक स्वरुप के समूहों में स्थानीय प्रशासन से सम्बन्ध था |
समूह -समूहों का गठन उद्देश्य विशेष की पूर्ति के लिए किया जाता था ,आर्थिक कार्यो सम्बन्ध समूहों में मणिग्रामम का उल्लेख चोल अभिलेखों में मिलता है | कुछ समूहों का धार्मिक प्रबंध देखना था | प्रत्येक ग्राम और नगर को विभिन्न गलियों में विभक्त कर उनकी व्यवस्था के लिए विभिन्न समूहों का गठन किया जाता था |
जैसे - बढ़ई ,सुनार ,धोबी ,इत्यादि | सामाजिक और आर्थिक जीवन में इन समूहों की विशिष्ट भूमिका थी | सभी समूहों में आपसी सम्बन्ध रहता था |
ग्रामसभाएं - चोलो की ग्राम सभाये पर बहुत ध्यान दिया जाता था ,चोलो की दो प्रकार के ग्राम सभाऐ की उल्लेख मिलता है उर और सभा |
उर - उर सभा में चोलो ने अपना गठन के संबंध में विशेष और स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है | ऐसा परतीत होता है की गाँव में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति पुरुष उर का सदस्य होता था |
वे सभी उर के कार्यवाहियों में भाग लेते थे,उर के कार्यो का समुचित ढंग से संपादन करने के लिए एक कार्यकारिणी परिषद् का गठन होता था | इनके गठन की प्रक्रिया और इसके सदस्यों की निश्चित संख्या स्पष्ट नहीं है |
सभा का गठन - उर की अपेक्षा सभा नामक संस्था अधिक संगठित प्रतीत होती है कुछ सभाओं में कार्यकारिणी परिषद का उल्लेख मिलता है,परन्तु अधिकांश सभाए वरियार और इसके सदस्य वारियर द्वारा संचालित होती थी |
सभा इन समितियों का गठन विशिष्ट कार्यों की पूर्ति हेतु विभिन्न सभाओं के वरियार ,उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया ,वरियारो की संख्या एक दूसरे से भिन्न होती थी, उनमे एकरूपता नहीं थी | मंदिर को दिये गए देवदान भूमि की देखभाल करने हेतु |
सदस्यों के निर्वाचल के लिए लाटरी व्यवस्था का पालन किया जाता था सिर्फ वैसे व्यक्ति का निर्वाचन का मनोनीत हो यह व्यवस्था सफल नहीं सक्रीय | अतः दो वर्षो बाद समिति में निर्वाचित होने वाले सदस्यों की परिक्रिया में परिवर्तन अथवा सुधार लाने का प्रयास किया गया |
नयी व्यवस्था के अनुसार समिति में सिर्फ कुटुम्बस के सदस्यों को ही स्थान दिया गया, सेरी के प्रतिनिधि को कोई स्थान नहीं मिला |
कुटुंब द्वारा अपने प्रतिनिधि के मनोनन की राज्यकर्मी को उपस्थित में किया गया | कुछ वर्षो पश्चात सभा ने गावँ के सभी लोगो के लिए सोने का मूल्य तय करने के लिए समिति नियुक्त की |
नगरम तथा नाडू - उरऔर सभा जहाँ ग्राम व्यवस्था से सम्बन्ध स्थानीय प्रशासनिक इकाइयां थी ,वही चोल अभिलेखों में नागरम तथा नाडु का भी उल्लेख मिलता है | नागरम मूलतः व्यापारियों की सभा थी | महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्रो में नागरम का गठन स्थानीय सभा के रूप में होता था नाडु एक प्रशासनिक इकाई थी जो मुख्यातः भू -राजस्व व्यवस्था से सम्बद्ध थी | इसमें क्षेत्र विशेष के सभी ग्रामो एवं नगरों की सभाओं के प्रतिनिधियों को स्थान दिया गया था | नागरम और नाडू के गठन के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध नहीं है | कुछ इतिहास कार का ये मानना है की इनका स्वरुप पौर -जनपद के समान था | नाडू धार्मिक अनुदान भी देती थी तथा अनुदान में मिली भूमि की व्यवस्था भी देखती थी |
विवादास्पद अथवा सामान्य मामलो में भी मतदान की व्यवस्था नहीं थी | कभी -कभी सभा में गतिरोध उत्पन्न करने की चेष्टा को रोकने के लिए नियम भी बनाये जाते थे | चोलो के अधीन विभिन्न समूह ,उर ,सभा ,नागरम ,नाडू स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था करते थे | इन संस्थाओं के माध्यम से क्षेत्र विशेष के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिरुचि एवं योग्यता के अनुसार स्थानीय प्रशासन में सहभागी होने का अवसर प्राप्त होता था |
चोल स्थानीय प्रशासन की सबसे प्रमुख पर्याप्त प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करना | इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है की ग्राम सभा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर लगाने तथा कर से मुक्ति देने का अधिकार भी रखती थी | इस प्रकार के साक्ष्य अनेक अभिलेखों से मिलते है | एक अभिलेख के अनुसार चोल राजा राजकेशरी के द्वितीय राजवंश में नलुर की ग्रामसभा ने स्थानीय दुकानों से प्राप्त होने वाली आय को ,कर्ज के सूद के बदले में ,स्थानीय मंदिर को स्थायी कर पर देने की व्यवस्था की |
इसी प्रकार कुमार -मंतड्पुरम के नागरतार ने स्थानीय आमदनी से प्राप्त होने वाली वार्षिक राशि को एक जैन धर्म स्थल की देखरेख के लिए देने का निश्चय किया |
प्राचीन भारत का एक राज्य वंश चोल वंश