वनों पर औपनिवशिक राजनितिक तथा वनो की महत्व
प्राचीनकाल से लेकर अघतन झारखण्ड के आर्थिक -सामाजिक जीवन में वनों विशेष महत्व रहा है | 1947 ई० से पहले बिहार के 80 प्रतिशत जंगल छोटानागपुर -संथाल परगना क्षेत्र में थे | इनमे बिहार की 90 प्रतिशत प्रतिशत जनजातियाँ रहती थी | झारखण्ड के जंगल दो प्रकार के थे,आद्र पर्णपाती एवं शुष्क पर्णपाती | शुष्क पर्णपाती जंगल सबई घास तथा बांस के थे जिनका विस्तार निरंतर घटता जा रहा था | सम्पूर्ण झारखण्ड में अच्छे किस्म की लकड़ियों के जंगल थे | किन्तु प्रधानता साल वृक्षों की ही थी | शहीशाम ,गम्हार ,करम,तथा कटहल लकड़ी का भी गृहनिर्माण में व्यापक यपयोग होता था | महुआ ,केंद ,बेर ,तथा जामुन वृक्षों के फल गरीब लोगो को पेट भरते थे | जनजातीयो के अतिरिक्त सदान भी वनो से बांस ,सबाई घास ,पाँतिया ,फल -फूल,कंद -मूल,मधु,गोंड,तसर ,लाह ,चमड़े ,सींग,हड्डियाँ तथा पंख आदि प्राप्त कर जीवनयापन करते थे एवं आमदनी बढ़ते थे | जंगओ का ह्वास अभी शुरू नहीं हुआ था न उनपर जनसँख्या का बोझ था | आवर न ठेकेदारों का प्रकोप | लघु वन्य उत्पादों अच्छी किस्म की लकड़ियों,चारा तथा अन्य औषधियों निमित अभी तक मारामारी नहीं थी | अधिकांश वन्य राजा - महाराजाओं ,जमींदारों एवं बड़े भू -भाग स्वामियों के कब्जे में थे | वे वन से केवल लाभ उठाते थे | वनो के विकास में उनकी रूचि नहीं थी | यधपि सम्पूर्ण वैन क्षेत्र का 80 प्रतिशत उनके कब्जे में था | 20 प्रतिशत जंगल ही सरकारी थे | द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ होते ही वनो का सहार भी शुरू हुआ | बढ़ती आबादी युद्ध की आवश्यकताएँ ,ठेकेदारों का आगमन और वैन संरक्षण के अभाव में वनो का क्षरण शुरू हुआ जो बाद में भी जारी रहा | फलस्वरूप स्थानीय लोगो के लिए वैन -उत्पादों की कमी होती गयी | घास चोप पियर दोना पटल,दातुन,बीज,साल,करंज,झाड़,बहेरा,आंवला,इमली केंद,चिरोंजी,बेर,जामुनआम,मधु,गोंड,जड़ीबूटियांएवं कंद -मूल बेचते वाले आदिवासियों का जीवन यापन कठिन होता गया | मनोवैज्ञानिक धरातल पर बनवासी ,वंजाति तथा गिरिजन कहे जाने वाले आदिवासी अब अपने वनो में भी असुरक्षा की भावना से गस्त हो रहे थे |
19 वीं शताब्दी के पूर्वाद में -कोमो का न तो व्यावसायिक दोहन शुरू हुआथाऔर न सरकारी हस्तक्षेप | वनवासियों बार -बार के विद्रोह के कारण सर्कार जंगलो को अभेघ मानती थी | किन्तु वनो पर सरकारी आधिपत्य स्थापित करने का लोभ बढ़ता जा रहा था | 1873 ई० में भारतीय वैन अधिनियम पारित हुआ | इसके अंतर्गत वनों पर जनजातियों के पारम्परिक अधिकारों को सीमित किन्तु अक्षुण्ण बनाये रखा गया था |
1901,1914,1920 तथा 1927 ई० में पारित संशोधनों के फलस्वरूप वनो पर सरकारी शिकंजा कसता गया और जनजातियों के अधिकार घटते गए | 1952 ई० को राष्ट्रीय वैन नीति के फलस्वरूप वनो में ब्रिटिशकालीन जनजातीय विशेषधिकार छूट मात्र बन कर रह गए |
रैयतों को जंगलों से वंचित किया जाने लगा | झूम ,खेती वनो में पशु चारण तथा कृषि भूमि का विस्तार सभी प्रतिबंधित होते गए | पढ़िए ,बिराज्य और कोरवा जैसे वैन-उत्पाद आधारित जनजातियों ने अब प्रारम्भिक कृषि कर्म को अपनाना शुरू कर दिया केवल पहाड़ी कोरवा ही पूर्णरूपेण वनों पर निर्भर रह गए |
इतना ही नहीं अब वैन नियमो का उल्लंघन करने के लिए आदिवासियों को जेल तक भेजा जाने लगा | ठेकेदारों को देखा-देखि आदिवासियों ने भी पैसे के लिए जंगलो को उजाड़ने लगे | इस तरह 1946 -47 ई० में 30 लाख रुपयों की लकड़ी अवैध रूप से जंगलो से निकली गयी | जंगलो में प्रायः 50 लाख पशुओं के चरने से सालाना 1 लाख टन पशु -चारा का नुकसान होता रहा | लाह तथा तसर उद्दोग भी प्रभावित हुए | जंगलों से उत्पतित आदिवासी दैनिक मजदूरो के रूप में नगरों में काम करने को बाध्य होते गए |
जंगलों के कटने से वन्य पशुओं की संख्या भी घटी |
बन्दर,गिलहरी तथा गीदड़ आदि छोटे पशुओं को ही नुकसान पहुँचती थी | कभी कभार राजा महाराजा बड़े पशुओं को आखेट करते थे ,किन्तु ब्रिटिश काल में अंग्रेज पदाधिकारियों की देखा -देखि भारतीय अफसरों ने भी वन्य पशुओं को भरी उकसान पहुँचाया गया | ऐसे लोगो को अपने अतिथि कक्ष को बाघ -सिंह -हिरण आदि की खाल सजाने वाले वैन विभाग के पदाधिकारियों की संख्या भी काम नहीं थी मोर बातक बाज हिरन हठी सांभर चीतल जैसे सुन्दर वन्य जीवो की संख्या भी असाधारण रूप से घटती गयी | आम,जामुन,कटहल,केंद,ताड़,तथा पियार जनजातीय के लिए फल न होकर अतिरिक्त भोज्य पदार्थ थे | महुए सरई,गेंठी कांडा,खाकर इन्होने कई दुःख झेल लिए थे | बेर इनका सेब तथा खुखड़ी इनके लिए मांस जैसी थी | इनकी जीवन शैली के अध्ययन से पता चलता है की आदिवासियों का जीवन वनो से गहरा सम्बन्ध जुड़ा हुआ था | ये भोजन,दवा,पानी,यंत्रो आयुघों ,तथा मुद्रा के लिए वनो पर निर्भर थे |
जनजातियां तथा मानव की वनो से लाभ
अधिकांश इलाकों में जहाँ कृषि योग्य भूमि नहीं थी ये वन्य
उत्पादों से वर्ष में 9 मास अपना गुजरा करते थे | इनके घर जंगलों से प्राप्त लकड़ी बांस तथा पतों के बनते थे |
विवाह भोज तथा आखेट भी जंगलो से सम्बन्ध थे | बिजली आवागमन के लिए साधनो मिटटी का टेल अन्न दवा तथा दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं को कमी के कारण ये पतों ,टहनियों तथा सूखी लकड़ी से आग और प्रकाश का काम करते थे | इनकी आवश्यकताओं सीमित होने के कारण ये वस्त्र प्रक्षालन तथा स्नान वनो से बहने वाले झरनो में करते थे | घरो को निपने के किये मानवों मने रंगीन मिटटी का उपयोग किया करते थे | ग्रामीण वनो में घरेलु उपयोग के लिए इनके अधिकारों को स्वीकार करते हुए इन्हे ख़ातियानो में दर्ज किया गया था |
किन्तु मुंडा ,उरांव संथाल तथा हो आदि प्रमुख जनजातियां -वन्य पशुओं एवं विशिष्ट रागात्मक दृष्टिकोण रखती थी | उन्हकी कुछ किल्लियो के नाम पशुओं पर आधारित थे | ें पशुओं की हत्या ये पाप समझती थी |
वनवासी जन्म से मृत्यु तक किसी -न किसी तरह वनो से जुड़ा था | जंगल उसके लिए रहस्मय था | इसीलिए सूर्योदय होते ही जब वह वैन में प्रविष्ट होता था तो सर्वप्रथम वनदेवी को एक टहनी अर्पित कर नमन करता था |